काव्य : भाग्य और पुरुषार्थ

कविता में है कुछ पंक्तियाँ, पर बात बड़ी समझने को,
एक तट पर मिले दो व्यक्ती, साथ-साथ यात्रा करने को।
निकल पड़े यात्रा पर वो, नाव और खैवईया साथ लेकर,
जान गए एक-दूजे को वो, अपना-अपना परिचय देकर ।

पहले जन ने दिया परिचय, कि मैं हूँ भाग्यवादी,
भाग्य के भरोसे ही मैं रहता, इसी का हूँ मैं आदी. 
तो दूजे ने कहा कि भईया, सुनो मैं हूँ पुरुषार्थी,
अपने कर्म से भाग्य बदल दूँ,  इतनी है मुझमें शक्ति।

अचानक तेज हवाएं चलीं, लहरें लगी लपकने को,
जाने कब प्राण जाएँ छूट, मिले ना राह बचने को,
हिलने- डुलने लगी थी नईया, आन पड़ी मझधार,
मुश्किल में पड़ गया खैवईया, जाने कौन लगाए पार।

उठ खड़ा हुआ पुरुषार्थी, करने को बंधु अपना कर्म,
जब तक साँस है आस न छोड़ूँ, बस यही है मेरा धर्म.
साँस बचाने के आस में, लग पड़ा वो खैवईया के साथ,
और पूछा दूजे व्यक्ती से, क्यों बैठे हो रखे हाँथ पर हाँथ।

भाग्य में जो है सो ही होगा, मिला उत्तर भाग्यवादी से,
अगर जो मृत्यु लिखी हुई है, कुछ ना होगा कर्म करने से.
कर्मवादी और खैवईया परंतु  प्रयास करने में लगे रहे,
प्राण गए खैवईया के छूट, मुश्किल में यूँ डरे-डरे।

पुरूषार्थी ने न मानी हार, आशा ने जो किया था घर,
जीवन मिला उन दोनों को, उतरी उनकी नैया तट पर.
शांत हुआ आँधी तूफ़ान, हुए वे दोनों जीवन को प्राप्त,
एक ही थे वे दोनों, भाग्य और पुरुषार्थ।

पुरुषार्थ देता है प्रेरणा, मनुष्य करता है कार्य,
कर्म के अनुसार ही, बनता है सबका भाग्य।
अच्छे कर्म करके तुम, आमंत्रित करो सौभाग्य को,
कविता में है कुछ पंक्ति, पर बात बड़ी समझने को ।

Comments

Unknown said…
True 👍,. Once has to..
And ur thought is awesome
Rohith Kumar said…
Wonderful ma'am 😍. Purusharthi aur aashavadi bankay kuchbhi haasil Kiya ja Sakta hai 😌🤗

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